Wednesday, April 1, 2020


*आज की कहानी
जब से देश में लॉकडाउन हुआ है और जबलपुर में कर्फ़्यू लगा हैतब से मेरा बाहर निकलना घर सेऑफ़िस और ऑफ़िस से घर तक ही सीमित था...चूँकि ऑफ़िस में काफ़ी लोग आते हैं औरएक्सपोज़र का ख़तरा होता है तो मैं घर में भी किसी को बुलाता नहीं हूँ और किसी के  यहाँ जाता भीनहीं हूँ...ऐसे में आज मुझे लगा कि शहर का भ्रमण करना चाहिए... इसी बीच हर्रई फार्म जाने काख़्याल भी दिमाग़ पर हावी हो गया...
मैं करीब १२ बजे घर से निकला और मेडिकल कॉलेज तक मुझे कुछ दुपहिए और चार पहिए वाहनमिले... पर एम्बुलेंस - मिल गईंदुकानें बिल्कुल बंद थीं... पर सड़कों पर होली की नहीं बल्किदिवाली की परिवा जैसा सन्नाटा थापुलिस के  पोईँट लगे थे पर कोई चेकिंग नहीं थीसब स्वस्फूर्तचल रहा थादवा की दुकानों के आगे खासी भीड़ थीमॉडल रोड वाले दवा मार्केट में तो रिटेलर्स कामेला लगा था...अस्पताल और क्लिनिक्स के सामने भी मरीज़ और  वाहन दिख रहे थे...तिलवाराघाटतक ऐसा ही नजारा था पर जैसे ही मैं हाइवे पर आयासूनापन स्पष्ट नज़र आया
बरगी रोड पर निगरी तक इक्का-दुक्का ट्रक दिखेपेट्रोल पम्प खुले और अधिकांश ढाबे बंद थेएकाध कार दिखीजिसमें से उत्साहित नौजवान ट्रक ड्राइवर्स को रोककर भोजन के पैकेट दे रहे थेबिना ये ख़्याल किए हुए कि ट्रक के केबिन में कोई कोरोना पीड़ित हो सकता है....बहरहालजैसे हीमैं निगरी से दाएँ हर्रई के  लिए मुड़ा...बीच के दोनों गावों  में सन्नाटा छाया हुआ था.. लौटते वक्तज़रूर एकाध बच्चे और युवा दिखे.... पर गाँव कोरोना के क़हर में पूरी तरह अनुशासन में औरअलसाए हुए थे...हाइवे के  गाँव निगरी में सारी दुकानें बंद थीं... भीतरी सड़क पर हर्रई से पहले केगाँव में भी पूरी तरह सन्नाटा था...हर्रई में भी पूरी तरह शांति थी... 
कहने का आशय यह है कि जबलपुर शहर में कर्फ़्यू के बीच भी लोग बाहर निकलने के लिए मचल रहेहैं... कर्फ़्यू पास के लिए सोर्स लगवा रहे हैं... पर इसी शहर के पास के गाँवों में रहने वाले ग्रामीणों नेसरकार और विशेषज्ञों की बात सबसे ज़्यादा मानी है... इसीलिए तो कहते हैं कि भारत की आत्मागाँवों में बसती है...

Saturday, March 14, 2009

फ़िर ना हो ऐसी होली

होली ने इस बार ऐसा गजब ढाया कि लगा जबलपुर फ़िर से संस्कारधानी से अपराधधानी बन गया है। शहर की ऐसी कोई गली नहीं थी जहाँ चाकू-तलवारें ना चली हों। शराब की दुकाने हर वक्त खुली रहीं, हुडदंगिओं ने सरेआम छेड़खानी की, विरोध करने वालों हमले कर दिए, पुलिस कर्मी झगडों को रोकने की बजाय मूक दर्शक बने रहे। मारपीट और हथियारबाजीकी घटनाओं ने आम आदमी को दहला कर रख दिया। अरसे बाद जबलपुर में इतनी आपराधिक घटनाएँ हुईं कि चार सैकडा से अधिक लोग घायल होकर अस्पताल पहुँच गए। इनमे से कई की हालत गंभीर है। उनके परिवारजनों पर क्या बीत रही होगी ये वो ही जानते हैं। बहरहाल, मेरी तो भगवानसे यही प्रार्थना है कि फ़िर ना हो ऐसी होली।

Friday, February 27, 2009

किस राह पर हैं हम

जबलपुर में अचानक अपहरणों की बाढ़ आ गई है। आए दिन अपहरणों की खबरें सरगर्म रहती हैं। कभी बच्चे का अपहरण तो कभी महिला का और कभी बड़े लोगों का। ऐसा लगता है कि जैसे जबलपुर बिहार की राह पर है। अगर किसी को यह अतिश्योक्ति लगे तो उसे पुलिस का रिकॉर्ड देखना चाहिए क्योंकि कई बार अपहरण की बजाय वह गुमशुदगी के मामले कायम कर अपनी इतिश्री कर लेती है। बहरहाल, अपहरणों ने आम जबलपुरिओं को दहशत में जरूर डाल दिया है। अब यहाँ के लोग भी अपने ड्राईवर और घरेलु नौकरों को शक की निगाह से देखने लगे हैं। आने वाला समय ऐसा होगा जब सेकुरिटी सर्विस वाले चौकीदारों के अलावा ड्राईवर, घरेलु नौकर आदि की सेवाएं देने लगेंगे। हालाँकि तब भी कोई गारंटी नहीं होगी कि अपहरण नहीं होंगे पर इतना जरूर लगने लगेगा कि या तो हम बिहार की राह पर हैं या फ़िर महानगरों की.

Tuesday, February 3, 2009

अपने गिरेबान में झांको

हजारों लोग नर्मदा जयंती के जाम में फंसे और पिसे, लेकिन जिम्मेदार लोगों के कानों में जूं नहीं रेंगी। रेंगती भी क्यों? अधिकांश तो घर में चैन से सो रहे थे। जो श्रद्धा या ड्यूटी की मजबूरी के कारण वहां मौजूद थे वो जाम को ख़त्म करने की बजाय ख़ुद निकलने की जुगत में लगे थे। इस चक्कर में इन लोगों ने यातायात के नियम कायदों को ताक पर रख दिया और जाम को बद से बदतर बना दिया। आए दिन जबलपुर की सड़कें जाम से परेशान रहतीं हैं। लोग समय से अपने काम पर नहीं पहुँच पाते, एंबुलेंस में मरीज दम तोड़ देते हैं, इस सबके पीछे जो लोग जिम्मेदार हैं वो माफिया के साथ मिलकर जमीने, पहाड़, तालाब, नदियाँ बेचने में व्यस्त हैं। इन लोगों को अपने गिरेबां में झाँककर देखना चाहिए कि जिस काम की उन्हें तनख्वाह मिल रही है उसे छोड़ कर वे सारे वो काम कर रहे हैं, जो अनैतिक की श्रेणी में आते हैं।

Thursday, January 29, 2009

कुछ तो करो टिकट मांगने वालों

एक बार फ़िर टिकट मांगने वाले सक्रिय हो गए हैं, इस बार मौका हैं लोकसभा चुनाव का। भाजपा हो या कांग्रेस, दोनों ही पार्टियों में टिकट मांगने वालों की कोई कमी नहीं हैं। भाजपा के जो वर्तमान सांसद हैं राकेश सिंह वो टिकट की दौड़ में काफी आगे हैं, लेकिन भाजपा में उनका विरोध करने वाले भी कम नहीं हैं। कांग्रेस में जो लोग टिकट मांग रहे हैं उन्हें मालूम हैं कि टिकट आसानी से मिल सकता हैं बशर्ते वे लड़ने की हिम्मत जुटा लें। अब प्रश्न यह उठता हैं कि टिकट मिलेगा किसे? इस प्रश्न का जवाब खोजने से पहले एक और प्रश्न हैं कि टिकट मांगने वालों ने किया क्या हैं? राकेश सिंह को ही लें तो एकाध उडान, एकाध ट्रेन के लिए किए गए उनके प्रयासों को सफलता तो मिली हैं, लेकिन उनकी झोली में ऐसा कुछ नहीं हैं जो उन्हें टिकट दिलाने के लिए पर्याप्त माना जाए, फ़िर भी उनका जो सबसे बड़ा प्लस पॉइंट है वह है उनकी साफ सुथरी छवि। पर कांग्रेस में ऐसा कोई भी दावेदार नहीं है, जिसकी छवि दागदार न हो। कांग्रेस में ऐसा कोई दावेदार भी नहीं है जिसने पद में रहते या न रहते हुए कोई ऐसा काम किया हो जिससे वोट मिल सकें। यदि विहंगम दृष्टि डाली जाए तो साफ नजर आएगा कि एक भी दावेदार को पूरी तरह योग्य कि श्रेणी में नही रखा जा सकता.

Friday, November 21, 2008

अस्पताल में इलाज नहीं मौत मिली!

कुएं में मीन प्यासी! इस कहावत को बदलकर कर देना चाहिए -'अस्पताल में इलाज नहीं'। जबलपुर के मेडिकल कॉलेज अस्पताल ने इस कहावत को गुरुवार को चरितार्थ भी कर दिया। 48 साल के सुरेन्द्र दिवाकर है अपने छोटे भाई मनीष के साथ अपने कजिन को देखने वहां पहुंचे, कजिन तो पहले ही डिस्चार्ज हो चुके थे पर वहां सुरेन्द्र भैया की तबियत बिगड़ गई, मनीष घबरा गए क्योंकि तीसरी मंजिल पर आए हार्ट अटैक के बाद सुरेन्द्र भैया को लिफ्ट बिगड़ी होने से नीचे केजुअल्टी तक लाना आसान नहीं था। मनीष को वहीं सामने के वार्ड में ड्यूटी डॉक्टर दिखा तो कुछ आस बंधी, लेकिन उस डॉक्टर ने सीधे सीधे कह दिया- 'वह तो हाथ भी तभी लगायेगा जब उसकी एंट्री हो जायेगी। मनीष के रोने, हाथ पाँव जोड़ने का उसपर कोई असर नहीं हुआ और जब एंट्री के बाद इलाज शुरू हुआ तब तक एक के बाद एक दो अटैक आ गए और सुरेन्द्र भैया इस दुनिया से चले गए।
जिस किसी ने भी सुपरहिट फ़िल्म मुन्नाभाई एमबीबीएस देखी हो तो उसे जरुर याद होगा जब संजय दत्त मामू से पूछता है- अगर मरीज फार्म भरते भरते मर गया तो फाल्ट किसका माना जाएगा? मेडिकल अस्पताल प्रबंधन ने लापरवाह डॉक्टर की जाँच शुरू की है, पर कोई कार्यवाई हो पायेगी इस पर शक है.

Sunday, November 16, 2008

कर्म भूमि

जबलपुर ओशो, महर्षि महेश योगी जैसे महापुरुषों की कर्म भूमि है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस को 1939 में यहीं कांग्रेस का अध्यक्ष बनने का सौभाग्य मिला था वह भी गांधीजी द्वारा खड़े किए उम्मीदवार के खिलाफ। बीमार नेताजी जी ने सित्ताभी पत्तारम्मैया को हराकर कांग्रेस में युवाओं का महत्व बढ़ा दिया था.इस शहर की हर गली किसी न किसी युग पुरूष की यादें संजोये हुए है. इस शहर की उर्जा को न पहचानने वालों ने इसे गर्त में धकेलने के प्रयास किए पर वो न पहले सफल हुए न भविष्य में होंगे.